समर्थ इतिहास-२०

 

अगस्त्य ऋषि के जीवन में उनके द्वारा दंडकारण्य में किया गया निवास यह एक विलक्षण खंड है। उस काल में दंडकारण्य में सुसंस्कृत एवं नीतिमान समाज का बड़े पैमाने पर बसेरा था। वाकाटक, मधुमंत, शैवल ऐसे तीन सुसंस्कृत राज्य दंडकारण्य में थे। कृष्णा नदी के किनारे तक यह दंडकारण्य फैला हुआ था और इसका कुछ हिस्सा विंध्य पर्वत के उत्तर में और कुछ हिस्सा विंध्य पर्वत के दक्षिण में था। वाकाटक यह राज्य सबसे अधिक सुसंस्कृत एवं प्रगत था; परन्तु इश्वांकु का सबसे छोटा पुत्र दंड इन राज्यों का अधिपति बन जाने के बाद इसके दुराचार के कारण प्रजाजन परेशान होने लगे। इसने राक्षसगुरु शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया और शुक्राचार्य की सहायता से अनेक राक्षससमूह दंडकारण्य में बसने के लिए आ गये और सभी स्थानों पर इन्हें ही अधिकार की जगह दी गयी। शुक्राचार्य की ज्येष्ठ कन्या अरजा की सुंदरता पर इस दंड राजा का दिल आ गया और उनके प्रेमसंबंध शुरू हो गये।

 

 

शुक्राचार्य के अनजाने में घटित हुए इस प्रकार के कारण शुक्राचार्य क्रोधित हो गये और उन्होंने अरजा का विवाह खर राक्षस से करवाया। आगे चलकर इस कारण दंड राजा और शुक्राचार्य एक-दूसरे के खिलाफ़ हो गये और शुक्राचार्य ने दंड राजा का वध करवाया। इसके बाद निरंकुश हो चुके राक्षसों ने वहाँ के सुसंस्कृत समाज का वहाँ पर बसना असहनीय बना दिया। कुछ सामान्य नागरिक कान्ह देश (खानदेश) और विदर्भ में जाकर बस गये, वहीं कुछ शूर्पारक राज्य में जाकर बस गये; परन्तु अनेक ऋषिसमूह तो स्वयं के आश्रम में रह ही रहे थे और उनके तपोबल के कारण राक्षस उनका विनाश करने में असमर्थ साबित हो रहे थे। इस ऋषिसमूह का एक ऋषि ‘श्येन अग्नेय` यह शुक्राचार्य का भांजा होने के कारण, शुक्राचार्य भी इस ऋषिसमूह को तकलीफ देने के विरोध में थे। तब मधुमंत नगरी का राक्षसराजा इर्‌‍वल ने शुक्राचार्य को कपटनीति से दंडकारण्य से दूर भेज दिया और यह (इर्‌‍वल) और इसका भाई वातापि इन्होंने ऋषियों का भेस धारण कर आश्रमों में प्रवेश प्राप्त करने की नीति अपनाई। संस्कृत भाषा और वेदों का ज्ञान शुक्राचार्य से प्राप्त हुआ होने के कारण ये दोनों भी ऋषियों के भेस में आसानी से विचरण कर सकते थे और कूटनीति से ऋषियों का संहार करवाते थे।

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

Click here to read this editorial in Hindi -  समर्थ इतिहास- 15