समर्थ इतिहास-१६
दक्षिण भारत में तामिळहम् प्रदेश के लोकमानस और राजमानस के सिंहासन पर ये अनभिषिक्त सम्राट (महर्षि अगस्त्य) राज करने लगे; लेकिन उनका साम्राज्य प्रेम का, सेवा का, पवित्रता का और उन्नयन का था। तमिल भाषा की उस समय प्रचलित रहनेवाली लिपि यह मूलतः ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई थी। उसका ‘कोळएळत्तु` यह नाम था। ‘कोळ` इस शब्द का तमिल में अर्थ ‘लाठी` यह है।
इस लिपि की रेखाएँ लाठी के समान सीधी होती थीं, इस कारण इस लिपि को यह नाम प्राप्त हुआ। सभी प्राचीन शिलालेखों में इस लिपि का ही इस्तेमाल किया गया दिखायी देता है। शिलाओं पर खोदते (कुरेदते) समय गोल आकार के अक्षर कुरेदना मुश्किल होता था, इस कारण अगस्त्य मुनि ने केवल शिलालेखों के लिए और मंदिरों की दीवारों तथा शिखरों पर पवित्र मंत्र एवं प्रार्थनाएँ कुरेदने के लिए, इस लिपि को उत्पन्न किया था, ऐसा माना जाता है। तमिल की दूसरी लिपि को भी अगस्त्य मुनि ने ही पुरस्कृत किया और पांड्य एवं चोल राजाओं द्वारा इसका प्रसार किया गया; यह दूसरी लिपि थी – ‘वट्टेळूत्तू` – ‘वट्टे` यानी गोल आकार का अर्थात वर्तुल-आकार वाला। मोडी लिपि की सगी बहन रहनेवाली, गोल-आकार वर्णों वाली इस लिपि का उपयोग अगस्त्य मुनि ने ताल पत्रों पर ग्रंथ लिखने के लिए किया; क्योंकि ताल के पत्तों पर मयूरपंख की नोक से सरल रेखा बनाते समय ताल का पत्ता फट जाता था। वर्तमान समय की तमिल लिपि इन दोनों लिपियों के मिश्रण से बनी हुई है।
सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष
Click here to read this editorial in Hindi - समर्थ इतिहास- 16