॥ हरि ॐ ॥
30 अक्तूबर 2009 के दिन परमपूज्य बापू ने मुझ पर आया अतिविकट संकट मेरे बिना जाने ही कैसे दूर किया यही बताना चाहती हॅूं ।
सांगाती आहे मी तुमचा खचित
तीनही काळी तीनही लोकांत
विसरलात तुम्ही मज जरी खचित
मी नाही विसरणार तुम्हांस निश्चियत॥
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के उपरोक्त वचन उन्होंने मेरे जीवन में प्रत्यक्ष रुप से भर दिये ।
बहुत से लोगों को पता ही है कि मुंबई की ट्रेनों में सुबह चढ़ना और शाम को उतरना कितना कठिन काम है, हम में से बहुत से लोगों को इसका अनुभव लगभग रोज ही आता है । मैं भी उस दिन अंधेरी एयरपोर्ट पर कस्टम ड्यूटी पर थी । वहाँ हमें शिफ्ट में काम करना होता है । 30 अक्तूबर को मेरी नाईट ड्यूटी थी । मैं हमेशा की तरह शाम को घर से निकली, चर्नी रोड स्टेशन पर लोकल में चढी । अंधेरी स्टेशन आते आते करीब आठ बज गये। लोकल अंधेरी से आगे जानेवाली थी । अतः स्टेशन पर चढनेवालों की बहुत भीड़ थी । ‘पीक अवर’ यानी सुबह और शाम को गाडी में चढ़नेवालों की इतनी भीड कि वे उतरने वालों की परवाह किये बगैर ही, ट्रेन छूट न जाये, इस डर से धक्का-मुक्की कर चढ़ना शुरु कर देते हैं । अब उतरने वाले भी इसी डर से गाडी रुकने की परवाह न करते हुए गाडी स्लो होते ही प्लॅटफॉर्म पर कूदना शुरु कर देते हैं । परंतु यह बात मुझसे नहीं होती, डर लगता है । अतः मैं हमेशा कुछ स्त्रियों के पीछे व कुछ के आगे खडी रहती हूँ, ताकि अगली स्त्रियाँ उतरने तक गाडी रुक जाये और मैं बिना कूदे उतर सकूँ ।
परंतु उस दिन ‘वो’ समय आ ही गया । अंधेरी उतरने वाली 3-4 औरतें ही मेरे आगे थी, पीछे कोई भी नहीं ! मैं आखिरी थी । अब प्लॅटफॉर्म पर खडी भीड़ अंदर घुसने से पूर्व मुझे उतरना था नहीं तो मैं अंदर ही रह जाती।
मेरे उतरने से पूर्व गाडी काफी स्लो थी । मैंने प्लॅटफॉर्म पर पैर डाला पर आदत न होने से, और टेन्शन होने के कारण मेरा संतुलन बिगड़ गया और दूसरा पैर गाडी और प्लॅटफॉर्म के बीच फँस गया । मैं उस दृष्य को अभी भी अपनी आँखों के सामने घटि त देखती हूँ । मैं बहुत घबरा गई और जोर से चिल्लाई । भीड़ में चढ़नेवाली औरतों को लगा कि इसके (मेरे) साथ कुछ गड़बड़ है लेकिन चढ़नेवालों को अपनी ही चिंता थी कि गाडी में किसी तरह घुसना है । अतः वे किसी की परवाह न कर (धक्का-मुक्की) चढतें रहें ।
एक क्षण में मुझ पता चल गया कि मेरी क्या हालत हैं ? किसी का धक्का लगने से मेरा चश्मा भी निकलकर कहीं गिर गया । कुछ ही क्षणों में यह सब हो गया । मैंने सोचा कुछ ही समय में गाडी फिर शुरु होगी, मेरा पैर तो गया !! मैं सुन पड़ गई थी .........परंतु अचानक कुछ ही सेकंड़ में, किसी का भी स्पर्श हुए बिना मैं प्लॅटफॉर्म पर अपने दोनो पैरों पर खड़ी थी । किसी ने मेरा चश्मा लाकर मेरे हाथ में दिया !!!
मैं सोचने लगी यह सब कैसे घटित हुआ ? मैं वहीं खडी सोचती रही । याद करने की कोशिश करती रही, मुझे बचाने के लिये भीड़ में से किसी ने मेरा पैर खींचा या क्या किया, पर मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था । मुझे किसी का स्पर्श भी याद नहीं आ रहा था । पैर पर चोट के निशान भी नहीं थे । मैंने स्वयं अपने पैर को ट्रेन व प्लॅटफॉर्म के बीच लटकते देखा था, उस स्थिती में आगे कुछ भी याद नहीं । मुझे किसने बाहर निकाल यह भी याद नहीं आता।
उस समय मैं अपने स्वयं के पैरों पर खड़ी थी और उस मानसिक अवस्था में मैं बापू को ‘थैंक्स’ कह रही थी । बस्स ! परंतु इस प्रसंग से इतना समझ में आया कि जब हम पर कोई संकट आनेवाला होता है तो ‘वह’ पहले ही जान जाता है । हमें लगता है हमारी उस पर होनेवाली श्रद्धा, भक्ति और उसे पुकारने पर उसका चले आना ..... परंतु सच नहीं है । वह सर्वव्यापी होने के कारण, संकट स्थल पर भी मौजुद रहता है और उसके पास जो अकारण कारुण्य है उसी के कारण वह बिना पुकारे भी हमारी मदद के लिये है । मुझ पर आया संकट ऐसा था कि ‘उसे’ मैंने मदद हेतु पुकारा भी नहीं था; मुझे सूझा भी नहीं था ! कुछ क्षणों का खेल, परंतु ‘वह’ उसी वेग से आया और मुझे संकट से उबार लिया । आज प्रारब्ध ने मुझ पर पैर गवाँने का प्रसंग लाया था, परंतु ‘बापू’ के कहेनुसार ‘वो’ मेरे साथ ही था और मैं पुकारना भूल गई थी, परंतु फिर भी ‘वो’ न भूला और आ गया !!!
॥ हरि ॐ ॥