॥ हरि ॐ ॥
जब मैंने रामनाम बही लिखना शुरु किया तो उस समय मैंने कुल तीन रामनाम बहियाँ पूरी की थी । वह बुधवार का दिन था । दूसरे दिन गुरुवार को बहियां जमा करके रामनाम बही का खाता खोलना था । खाता खोलने के लिये मैं प्रवचन स्थल न्यू इग्लिश स्कूल (श्रीहरिगुरुग्राम) जानेवाला था । उसके पहले बुधवार को मैंने बापू से प्रार्थना की कि, ‘‘हे बापू, मैंने यह बहियाँ अंतःकरण से, श्रद्धापूर्वक, मनःपूर्वक तथा आपके द्वारा बताये गये सत्य, प्रेम, आनंद के मार्ग का अवलंबन करके लिखी है । इसलिये बापू तुम मुझे स्वप्न में अथवा रास्ते पर कहीं भी आज बुधवार व कल गुरुवार तक अवश्य दर्शन दीजिये ।’’ यह मेरी आर्ततापूर्ण और मनःपूर्वक बापू के चरणों में की गयी प्रार्थना थी।
बुधवार का दिन निकल गया परंतु बापू के दर्शन नहीं हुये । फिर भी मैं गुरुवार को प्रवचन स्थल पर मेरा रामनाम बैंक का खाता खोलने तथा तीसरे मंजिल पर बापू के प्रवचन सुनने जानेवाला ही था । बरसात के दिन थे यानी जुलाई का महिना था । जब मैं तीसरी मंजिल पर जा रहा था तभी एक कार्यकर्ता ने ‘हरि ॐ काका’ कहकर अचानक मुझे पुकारा और मुझे रोककर मुझसे कहा कि आप मेरे साथ आओ । मुझे थोडा आश्चर्य लगा परंतु फिर भी मैं उसके साथ चला गया ।
...और क्या आश्चर्य ! मैं अवाक रह गया । उस कार्यकर्ता ने मुझे जहाँ पर बापू प्रवचन के लिये बैठते हैं, ठीक उसके सामने बिठा दिया । क्या है बापू की महिमा ! मैं पागल की तरह कुछ भी मांगता हूँ और बापू मेरे जैसे पागल भक्त की आशा पूरी करते हैं । सब कुछ अतर्क्य ! थोडी देर में बापू आये, प्रवचन हुआ और बापू ने मुझे पूरे दो घंटे तक दर्शन दिये । सत्य है, सद्गुरुतत्त्व कितना है, कितना विलोभनीय, कितना कृपालू, क्षमावान और प्रेमल है और वो किस तरह अपने भक्तों का, चाहे वह जितना छोटा क्यों न हो, उसका भाव जानकर उसको उचित प्रतिसाद कैसे देता है, इसकी अनुभूति मुझे हुयी । यहीं है गुरुभक्तलीला दर्शन !
भाव ही देव, जैसा भाव वैसा देव ।
श्रीसाईसच्चरित के 14वें अध्याय मे, भक्ती का भाव कैसा होना चाहिये इसका वर्णन आया है । वह निम्नलिखित है,
भावभक्तीची शिरापुरी ।
किती ही खा सदा अपूरी ॥
सद्गुरु चरणों के प्रति प्रेम की भूख सदैव बढ़ती ही रहती है, इससे यहीं स्पष्ट होता है ।
यहीं से मेरी रामनाम बही लिखने की शुरुआत हो गयी । जैसे जैसे बही लिखकर पूरी हो रही है वैसे वैसे इस लेखन का और भी मजा आ रहा है । यह अनिरुद्धराम कदम कदम पर अपने भक्तों का ख्याल रखता ही है । भक्तों की सीमित क्षमता जानकर जो वो कर सकता है वहीं वे भक्तों से करने के लिये कहते हैं । उन्होंने ही यह रामनाम बही का सीधा-साधा सरल साधन हमें दिया ।
रामनाम बहीकी महिमा कितनी सामर्थ्यशाली और प्रभावी है इसका सुंदर वर्णन गुरुवार दिनांक 5-3-2009 के दिन डॉ. योगीन्द्रसिंह जोशीजी ने दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ के अग्रेलख में किया है, रामनाम की बही लिखते समय हम त्रिदल बेलपत्र ही भगवान को अर्पण करते रहते हैं और उसके साथ ही साथ हरिकृपा से प्राप्त बेल के फल का सेवन भी करते रहते हैं । रामनाम बही में रामनाम बही लिखते समय हम मन से रामनाम का उच्चारण करते हैं, हाथों से रामनाम लिखते हैं तथा आँखों से रामनाम देखते हैं । उभयेंद्रिय मन, कर्मेंद्रियों में प्रधान हाथ और ज्ञानेंद्रियों में प्रधान आँखे, इन तीन दल के बेलपत्र से हम भगवान का पूजन करते रहते हैं । रामनाम बही में नाम लिखते समय ‘नाम ही नाम का फल’ का भाव अपने आप ही हमारे मन में दृढ़ होता रहता है और यहीं बेलपत्र हमारा समग्र विकास करता है । नाम का वाहन बनकर हरिकृपा हमारे जीवन में अवतरित होने के लिये रामनाम बही सबसे सहज सुंदर मार्ग है।’’
सत्य है, रामनाम बही लिखना अत्यंत सहज साधारण मार्ग है । यद्यपि यह सहज साधारण मार्ग है; फिर भी यह रामनाम की बही अपने सद्गुरु बापू द्वारा अपने हाथों में दी गयी ‘वस्तु अमौलिक’ है, जिससे उनकी कृपा हमें प्राप्त हो सकती है ।
यहाँ पर संत मीराबाई के ‘राम रतन धन पायो’ नामक सुप्रसिद्ध भजन में रामनाम को उद्देशित करनेवाले शब्द याद आते हैं, वस्तु अमौलिक दी मेरे सद्गुरु
किरपा कर अपनायो ॥
पायो जी मैंने रामरतन धन पायो ॥
ऐसा ही मुझे एक अन्य अनुभव हुआ । सितम्बर 2007 तक मेरी कुल 27 बहियाँ पूरी हो चुकी थी । उस दरम्यान अगली बही लिखते समय मेरा दाहिना हाथ अचानक दर्द करने लगा, साथ ही साथ मेरी गर्दन में भी दर्द होने लगा । दर्द इतना ज्यादा था कि हाथ को ऊपर नीचे करना भी संभव नहीं हो रहा था । गर्दन को भी बांये और दाहिनी ओर घुमाना संभव नहीं हो रहा था । यह दर्द तो हो ही रहें थे परंतु सबसे बड़ा दुःख इस बात का था कि मैं रामनाम बही नहीं लिख पा रहा था।
मैं बापू से बिनती की कि, ‘‘बापू, कैसे भी करके मुझे कम से कम 151 रामनाम बहियाँ तो पूरी करनी ही हैं और फिर आपका चरण स्पर्श तो चाहिये ही ।’’ मुझे दृढ़ विश्वास था कि बापू मेरी समस्याओं का निदान अवश्य करेंगे तथा मुझे मेरे इन दर्दों से अवश्य उबारेंगे तथा मुझे फिर से बही लिखने का सामर्थ्य और शक्ति प्रदान करेंगे ।
इस दरम्यान मैंने अपना इलाज पुजारी नर्सिंग होम वांद्रे (पूर्व) में डॉ. कुलकर्णी नामक आर्थोपेडिक डॉक्टर से करवाया । साधारणतः एक महीने में मेरा हाथ और मेरी गर्दन पूरी तरह ठीक हो गयी और मैं फिर से रामनाम बही लिखने में सक्षम हो गया । तभी से जो मैंने रामनाम बही लिखने की शुरुआत की तो 151 बहियां पूरी होने तक मेरी गर्दन व मेरे हाथ में फिर कभी दर्द नहीं हुआ । बापू का वरदहस्त होने के कारण मैं यह कर सका । मेरे बापू मेरे साथ में थे इसीलिये मैं 151 बहियां दि. 21/9/2010 के दिन पूरी कर सका । अनिरुद्ध पाठ में लिखा ही गया है कि ‘नामाचा जो झाला नामी जो बुडाला । त्याचा रखवाला अनिरुद्ध ।’’ अर्थात जो नाम का हो गया और नामी में पूरी तरह डूब गया उसका रखवाला अनिरुद्ध ही है । मुझे, मानो, इसी बात की अनुभूति हुयी ।
जब बापू हमारे साथ हैं तो ड़र किस बात का ! इसीलिये मैं मेरे भगवंत को कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ । सत्य है, ‘सद्गुरुचरण असता पाठीराखा । इतरांचा लेखा कोण करी ।’’ अर्थात जब ‘सद्गुरु हमारा रक्षक है तो अन्य किसी की चिंता करने की क्या आवश्यकता है !’’
॥ हरि ॐ ॥