॥ हरि ॐ॥
आनंद मनीं माईना, कसं गं सावरू।
घे गगन भरारी, उडू पाहे पाखरू, पाखरू॥
(अर्थः आनंद मन में न समाए, कैसे समझाऊ ले उडान भरे, पखेरु उडना चाहता हैं)
आज बापू के साथ चलते हुए मेरे परिवार ने अनेकबार बापूकृपा एवं उनके अकारण कारुण्य का अनुभव किया है । दूसरों के अनुभव भी सुनते व पढ़ते हैं जिनसे आनंद मिलता है व श्रद्धा भी सबल होती है । बचपन में न आनेवाले सवाल, एकदम समझ आ जाने पर जैसा आनंद होता है । वैसा आज मुझे हुआ है । जिस मैं आपके साथ बाँटना चाहती हूँ ।
यह अनुभव बिल्कुल मातृवात्सल्यविंदानम् की घंटानाद की कथा की याद दिलाता है ।
मैं व मेरे पति कुछ दिन पूर्व बेलगाम से मुंबई रेलयात्रा कर रहे थे । हमारा मिरज से मुंबई तक आरक्षण था । मिरज जानेवाली बस विलंब से चल रही थी । अतः हमने कोल्हापुर से रेलगाडी पकडने का तय किया । कोल्हापुर से मिरज की यात्रा के दौरान दोनो ने आह्निक किया, दत्तबावनी का पठन किया ।
रेलगाडी आयी, हम चढ़ें । मेरा व मेरे पति का रिझर्वेशन एक साथ न था । दोनों अलग अलग जगह बैठे थे । मैं उपर के अपने बर्थ पर बैठी थी । साथ के छः सहप्रवासी पुरुष थे जो सभी नशे में धुत, बेताला व्यवहार व गंदी गालियों की बौछार कर रहे थे । पत्ते खेलेंगे, पेग मारेंगे ऐसी उनकी बातें शुरु थी ।
पति डिब्बे के अगले हिस्से में जाकर सो गए थे । उनसे जगह बदलने के अतिरिक्त कोई उपाय न था ।
तभी न जाने कहाँ से मन में विचार आया,‘‘मैं क्यों इन लोगों से डरू ? मेरे सद्गुरु मेरे साथ हैं तो अपना नामस्मरण करते रहे ।’’ अब उन पुरुषों का भोजन आरंभ हुआ । मैं रामनाम बही लिख रही थी । तभी बापू से प्रार्थना की कि बापू इनकी गालियां सुनी नहीं जाती । ये जल्दी लाईट बंद कर सो जाए तो अच्छा !
मैंने भी दृढ निर्धार जप चालू रखा उन सहप्रवासियों का गालियाँ देना व अश्लील हरकतें चालू थीं । जप की गति भी अपनेआप बढ़ने लगीं व कुछ समय बाद एक चमत्कार ही हो गया । उनमें से एक व्यक्ति अपने मित्र को बोला, ‘‘गालियाँ मत दो ।’’ भोजन उपरांत सभी शांति से सोने की तैयारी करने लगें ।
घटनास्थल से सैंकडों मील दूर मेरे सद्गुरु के सामर्थ्य का यह अनुभव किसी को मृत्युमुख से बचाने जैसा रोमांचक न लगे । परंतु मुझे नामस्मरण का यह परिणाम रोमांचक लगा । ‘मातृवात्सल्यविंदानम्’ में आदिमाता के घण्टानाद दैत्यों के बल के क्षीण होने का उल्लेख है । वैसे कलियुग में नामजप से सामनेवाले व्यक्ति के बुरे विचार नष्ट होने लगते हैं व वह कुछ समय के लिये ही क्यों न हो, वह ठीक व्यवहार करते हैं । यह देखकर मेरा उत्साह दुगना हो गया ।
इसके अलावा हम वानरसैनिक बन कुछ अच्छा कर सकते हैं । उस विचार से मन आनंदित हुआ । क्योंकि बढती उम्र के कारण हम कैसे वानरसैनिक बन सकेंगे ? क्या कर सकते हैं ? यह विचार सताते थे । वह चिंता भी इस अनुभव के कारण दूर हो गई । अब मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि सद्गुरु के बताए अनुसार हम मंत्रपठन, रामनाम बही लेखन करें तो वातावरण में अच्छे स्पंदनों का निर्माण कर सकते हैं । दूसरों के मन के गंदे विचारों को दूर कर सकते हैं ।
बापूजी मुझे हमेशा आपकी स्मृति रहें यही आपके चरणों में प्रार्थना !
॥ हरि ॐ॥