॥ हरि ॐ ॥
बापूराया, मैं कुछ भी नहीं जानती । आप जो चाहो, वहीं मुझसे लिखवा लो । आपकी इच्छा ! ऐसा मानकर मैं यह अनुभव लिख रही हूँ ।
साल 2008 की बात है । जब मैंने पहली बार बापू के विषय में सुना था, तब मेरे मन में काफी शंकाए थी । कौन है बापू ? लोग इन्हें भगवान क्यों मानते हैं ? वगैरह .... वगैरह । मन में तरह तरह के प्रश्न और उनके उत्तर ढूँढने का सिलसिला चालू हुआ । ‘‘कृपासिंधु’’ मासिक पुस्तक में आये/ लिखे गये बापू के बारे में जो अनुभव है, बापू द्वारा लिखे गये दैनिक प्रत्यक्ष के अग्रलेख, उनके अन्य लेख इन सभी का पठन 5-6 महीनों तक जारी था । इसी दौरान ‘रामनाम बही’ लिखना भी शुरु कर दिया ।
एक बापूभक्त के कहेअनुसार मैंने श्रीसाईसच्चरित का पठन भी शुरु कर दिया । उसमें से काफी कुछ समझ नहीं रहा था । पर पढ़ने में बहुत अच्छा लगने लगा । उन्हीं के द्वारा मुझे यह भी पता चला कि श्रीसाईसच्चरित पर संस्था द्वारा पंचशील परीक्षा भी होती है । मैंने भी सहजता से ‘हाँ’ कहा और प्रथम 10 अध्यायों पर आधारित परीक्षा भी दे दी । पेपर लिखते समय भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूँ ? बापू ने ही लिखवा लिया । 108% ! क्योंकि मैंने तो कैसा भी लिखा था और एक दिन पडो़स की चाची यह बताने आई कि तुम्हें इस परीक्षा में ‘विशेष प्राविण्य’ (डिस्टींक्शन) मिला है और पेपर लेने मुंबई जाना है ।
मन में बहुत खुशी थी । बार बार लगता था कि इतने लोग इन्हें भगवान मानते हैं तो जीवन में एक बार तो इनके दर्शन मुझे प्राप्त हों । परंतु मुंबई में कोई जान-पहचानवाला नहीं ! कहाँ जाना है कौन बताऐगा ? तरह तरह की शंका-कुशंकाएं ! परंतु अब तो ‘वह’ समय आ ही गया था ।
गुरुवार के दिन दर्शन हेतु आये हुए भक्तों की प्रचंड भीड़ में मैंने जब सर्वप्रथम ही बापू को देखा तब मैं पूर्ण रुप से अपनेआप को भूल गई थी । आँखो से आँसू बह रहे थे । मन में जिस सद्गुरु की चाह थी वे मुझे मिल गये थे । जब उनसे नजर मिली तो उन्होंने आशिर्वाद की मुद्रा में हाथ दिखाया और आँसू रुक गये उसी क्षण मानो मैंने उनके चरणों में शरणागति दे दी । अनेक जन्मों के पुण्यों से ही जीवन में सद्गुरु के सगुण रुप की भक्ति प्राप्त होती है ।
इस घटना के बाद दो वर्ष बीत गये । मैं आगे की परीक्षाएँ देती रहीं । काफी अनुभव भी आये । मेरे घर में बापू भक्ति का विरोध था । परंतु मैंने उनके चरणों को अपने हृदय में बसा रखा था । मुझे हमारे पुणे केंद्र के प्रमुख सेवक श्री प्रवीणसिंह वाघ इन्होंने इतना ही कहा था कि वे हमारे हृदय में रहते हैं और वहीं अपनी पहचान या निशानी भी देते हैं । हम उनकी (बापूकी) इच्छा के बिना किसी को भी यह समझा नहीं सकते कि ‘बापू कौन है?’ बापू का दर्शन मिलना या नाम लेना भी बापू की इच्छा पर निर्भर है । अत: जो मुझे मिला है, मैंने उसीको कसकर पकड़ रखा था और अनेक कठिन प्रसंगों में से उन्होंने मुझे पार लगाया है ।
(और आज तो उन्होंने मुझे ‘सौभाग्यदान’ दिया है । सच ! मेरी यह सद्गुरुमाऊली बहुत दयालु है । हम चाहे जितनी भी गलतियाँ करें, जितने भी पाप करें, फिर भी वह हमें संभाल लेते हैं ।)
एक दिन ऐसे ही सहज बातचीत करते करते मेरी और पति की लडाई हो गई । वे बोले, ‘‘तुम्हारे बापू को गले में डालकर घूमती रहती हो नं ? उससे क्या होता है?’’ मैंने भी तैश में आकर कहा, ‘‘जब से यह लॉकेट पहना है, याद करो कितने बडे-बडे संकटों से बचे हैं ।’’ मेरे बापू पर उनका विश्वास क्यों नहीं यह सोच मैं उनसे नाराज थी ।
7 अप्रैल 2010 को पति को अचानक बुखार आया और 102 डिग्री तक चढा । वे स्वंय डॉक्टर के पास जाकर दवाईयाँ ले आये । फिर भी बुखार नहीं उतरा । रात को मैंने उन्हें उदी लगाई । मुझे पूर्ण विश्वास था कि बापू द्वारा प्रत उदी इस बुरे काल पर दवाई का रुप लेगी ।
दो दिन बीत गये । फिर भी बुखार उतरता न था । और उन्हें बार बार लगता था कि उन्हें स्वाईन फ्ल्यू हुआ है । घर में वे लगातार मुझे और मेरी बेटी को (पीहू) कहते थे, ‘‘दूर ! दूर ! पास मत आना ।’’ और हमे लगता कि मजाक़ कर रहे है। मैं रात को उनके पास बैठ कर माथे पर नमक के ठंडे पानी की पट्टियाँ लगाती थी । बापू का नामजप निरंतर चालू था । सुबह वे स्वंय सरकारी दवाखाने में गये । डॉक्टर को कहा कि शायद मुझे स्वाईन फ्ल्यू हुआ है । डॉक्टर ने चेक किया, पर उन्हें ऐसा कुछ लगा नहीं । उन्होंने दवाईयाँ लिख दी । पति को विश्वास नहीं हो रहा था । अत: वे घर गये और तुरंत गाडी बुलवाकर ‘पुणे में डॉक्टर के पास जा रहा हूँ, कहकर चले भी गये ।
वे सीधे नायडू हॉस्पिटल गये । परंतु वहाँ के डॉक्टर ने उनकी नहीं सुनी । उपर उपर से चेक कर टॅमिप्ल्यू की गोलियाँ दे दी । फिर मेरे घर के लोगों ने उन्हें पुणे के एक प्रायव्हेट अस्पताल में एडमिट करवा दिया । वहाँ के डॉक्टर ने तुरंत उन्हें टेस्ट के लिये भेजा और बुखार कम करने के लिये ट्रीटमेंट शुरु कर दी ।
इधर घर पर मेरा मन ठीक नहीं था । बेटी के स्कूल से आने के बाद एक बजे मैंने ‘घोरकष्टोधरण स्तोत्र’ पठन शुरु किया । तभी बार बार इनका फोन आ रहा था । पर मैंने उठाया ही नहीं । शाम 7 बजे पता चाला कि जिस परममित्र से वे बार बार काम करवाते थे उनकी पत्नी की ‘स्वाईनफ्ल्यू’ से मृत्यु हो गई है । यह सुनकर मुझे जोर से धक्का लगा क्योंकि उन्हीं के घर मेरे पति 31 मार्च को रात को रहे थे और 1 अप्रैल को चाय-नाश्ता करके खेड़ वापस आये थे । उस मित्र की छोटी बेटी को भी बुखार था और मेरे पति उस बच्ची के साथ भी खेल रहे थे ।
10 अप्रैल को दोपहर 3 बजे मेरी ननंद ने मेरे जेठजी को फोन कर बताया कि मधू को (मेरे पति) स्वाईन फ्ल्यू हुआ है । रिपोटल पॉझिटिव्ह है । उन्हें भी धक्का ही महसूस हुआ । कलेजे पर पत्थर रखकर उन्होंने यह खबर मुझे दी । यह सुनकर मेरे तो मानों पैरों तले से जमीन ही फिसल गई । बहुत डर लगने लगा । इन्हें तो डायबिटीज भी थी । आँखो से आँसू टपकने से पूर्व ही अचानक पहले याद आया तो हमारा बापू ! पर बापू को फोन कैसे लगाऊँ ? तभी सुचितदादा को याद कर उन्हें फोन लगाया । रोते रोते ही सब बताया । दादा बोले, ‘‘कोई चिंता मत करो । उन्हें कुछ नहीं होगा । बापू तुम्हारे साथ है और बापू परिवार से तुम्हें सारी मदद मिलेगी ।’’
दादा के इन आश्वासक वाक्यों से बहुत धीरज मिला । एक पल में ही मैं संभल गई । सर्वप्रथम उदी की डिबिया, बापू का फोटो, रामनाम बही ली और उसी अवस्था में पुणे जाने को निकली । खबर सुनते ही ‘घोरकष्टोधरण स्तोत्र’ बोलना शुरु कर दिया था । मैं, मेरी बेटी, मेरा भाई और जेठ गाडी से पुणे के लिये निकले । भाई तेजी से गाडी चला रहा था ।
हम नायडू अस्पताल पहुँचे, परंतु तब तक मेरे पति वहाँ आये न थे । फिर वे गाडी से वहाँ आये। पूरा चेहरा रुमाल से ढकां हुआ, सिर्फ दो डरी हुई, निराश दो आँखे दिख रही थी । मैंने उनके मित्र के पास उन्हें देने के लिये, बापू की उदी, फोटो देकर भेजा । वह भी बिना डरे देकर आया । डॉक्टर ने हम सभी का चेक अप किया । किसी को भी इन्फेक्शन न था । डॉक्टर जब मेरे पति को ऍड़मिट करने ले जाने लगे; तब पता नहीं कैसे मुझे धैर्य आया और मैंने उनके पास जाकर कहा, ‘‘डरो मत, मैंने दादा को फोन किया था । उन्होंने कहा है कि आपको कुछ नहीं होगा । हम तीन दिन में घर जाएंगें ।’’
डॉक्टर ने अपना कार्य शुरु कर दिया था । वॉर्ड में मेरे पति अकेले ही थे । उन्हें बहुत डर लग रहा था । मैं कहती, ‘‘डरो मत, बापू हैं । उदी लगाओ, फोटो की ओर देखो कुछ न होगा ।’’ परंतु उनका डर कम नहीं हो रहा था । मैंने वहाँ दत्तमाला मंत्र, दत्तबावनी, हनुमान चलिसा, रामरक्षा इ. पठन जारी रखा था । यह करते करते कब नींद लग गई पता भी न चला । सुबह ठीक 3.15 बजे ब्राम्हमुहूर्त पर मैं जगी । फिर उपासना शुरु की । सब हो जाने पर मुझे गहरी नींद लग गई । फिर सुबह 9.30 बजे मैं नाश्ता लेकर अस्पताल गई । वहीं सीढीयों पर बैठकर मेरा जाप, बापू को पुकारना जारी था । घर का हर सदस्य अपने अपने तरीके से भगवान को पुकार रहा था । सब डरे हुए थे । परंतु मेरे मन में सतत एक ही बापू का वाक्य बार बार मानों घूम रहा था, ‘‘मेरे बच्चों ! चाहे तुमपर कितना भी बडा संकट आये, फिर भी उस संकट से तुम्हारा बापू बहुत बडा है, यह कभी मत भूलना ।’’ पर मैं किसे बताती ! मेरे मन में एक बार विचार आया कि हे बापू ! चाहे मेरे पति ने बहुत गलतियाँ की हो पर यदि मैंने एक बार भी तुम्हारा नाम प्रेम से लिया जो तो तुम उन्हें बचा लो ! उनके प्रारब्ध कर्मानुसार यदि उनके जान पर बन आई हो तो उनके जगह मैं जाने को तैयार हूँ । पर तुम उन्हें बचाओ ! उन्हें एक मौका दो । तुम ही असंभव को संभव बना सकते हों ।’’
डर के कारण उनकी शुगर बढ़ रही थी । तभी मंगलवार सुबह 13 तारीख को मुझे उलटियाँ और खाँसी होने लगी तो मेरी ननंद मुझे नायडू में चेक-अप करवाने को ले गई । डॉक्टर ने मुझे एडमिट होने को कहा । मुझे कोई खास डर नहीं लगा क्योंकि मेरा बापू पर पू्र्ण विश्वास था।
परंतु मुझे बहुत थकावट जान पड़ती थी । डॉक्टर ने मुझे सलाईन लगाई थी । इंजेक्शन दिया । हमारे रिपोटल नॉर्मल थे । सिर्फ खून में टी2सी की संख्या बहुत कम थी और मेरे थ्रोट स्वॅब का रिपोर्ट नहीं आया था । मेरे पति की मानसिक स्थिती दिन ब दिन गिर रही थी । अत: मेरे जेठ और ननंद मंगेशकर अस्पताल में पहचान के डॉक्टर पल्लवी से जाकर मिले और उन्हें बताया कि मेरे पति को 11 तारीख से बुखार नहीं आया । रिपोर्टस् भी नॉर्मल है, परंतु टेन्शन से उनकी शुगर बढ़ गई है । डॉ पल्लवी ने कहा कि, ‘‘किसी भी दवाई का सही असर होने के लिये शुगर नॉर्मल होना बहुत जरुरी है । अत: आप दोनों को लेकर यहाँ आईये । ’’
इसलिये मुझे और मेरे पति को 13 तारीख को शाम 7 बजे दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल में एक ही कमरे में ऍडमिट किया गया । उसके बाद पूरे दो दिन मैं व मेरे पति साथ ही थे । निरंतर नामपमरण, घोरकष्टोधरण स्तोत्र पठन जारी रहा । विशेषरुप से उल्लेखनीय बात यह है कि उसी दौरान प.पू. बापू द्वारा दिया गया ‘गुरुक्षेत्रम् मंत्र’ भी मुझे अस्पताल में ही मिला । उसका भी मैं श्रध्दा से पठन करती थी । मेरे पति के सामने इस मंत्र का पठन हो ऐसी बापू की ही इच्छा थी । बाद में दि.15 को गुरुवार के दिन शाम 4 बजे डॉक्टर ने यह कह कर हमें डिस्चार्ज दिया कि आप दोनों अब पूरी तरह से ठीक हो, अगले गुरुवार को रुटीन चेक अप हेतु आना ।
इस संपूर्ण घटना में मुझे कदम कदम पर बापू का अस्तित्व जान पड़ रहा था । मेरे पति में दि.1 ता. से एच1एन1 व्हाइरस था वह डिटेक्ट हुआ । दि.11 को ! बीच के काल में इन्हें कोई खास तकलीफ नहीं हुई । उनके संपकल में आये किसी भी ळयि.त को यह तकलीफ नहीं हुई । डायबिटिज के होते हुए भी 4 दिनों में पेशंट फिर से वापस घर आना असंभव था, जो बापू द्वारा दिये गये सुरक्षाकवच से संभव हुआ । हम जो नित्य उपासना, मंत्र पठन, सामूहिक जप, सेवा, भक्ति इ. करते हैं उसके द्वारा हमारे आसपास जो कवच तैयार होता है वह हमें संकटों से बचाता है ।
कभी भी रामनाम न लिखनेवाले मेरे पति ने अस्पताल में रामनाम बही के तीन पन्ने लिखे। बापू की इच्छा के बिना रामनाम बही में लिखना संभव नहीं है । मैं जब घर में श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज और मातृवात्सल्यविंदानम् ये दोनो ग्रंथ लाये तब से वे उन ग्रंथों की पूजा करते हैं । मैं भी रोज पढ़ती हूँ । इस सभी की फल प्राप्ती है-बापू द्वारा मुझे दिया गया सौभाग्य दान ! ऐसा सिर्फ वहीं कर सकता है । इतनी बिकट परिपिथती में बापू ने ही मुझे, मेरे मन को पूर्ण समर्थ बनाये रखा था । क्षणभर के लिये भी न भूलते हुए घोरकष्टोधरण स्तोत्र का पठन करवा लिया ।
इसी दौरान बेटी की परीक्षा चल रही थी । बापू ने वह कार्य भी करवा लिया, परीक्षा छूटने न दी । वह मामा के साथ खेड़ आई और सारे पेपर दिये । यह काम भी वहीं करवा सकता है ।
उपासना केंद्र के सारे भक्त जैसा भी संभव हो वैसे स्तोत्र पठन कर रहे थे । निरंतर फोन कर मुझे धीरज बंधा रहे थे । सबकी प्रार्थनाओं को बापू ने स्वीकार किया । प.पू. बापू ने हमें और कौन कौन से संकटों से बाहर निकाला, इसका पता हमें काफी बाद में चला । स्वाईन फ्ल्यू के ठीक होते ही एक सप्ताह के अंदर ही पति को डेंग्यू और चिकनगुनिया भी लग चुका था । रिपोर्ट में इस बात का पता बाद में चला । परंतु उसका शरीर पर कोई दुष्परिणाम न हुआ । डॉक्टर को काफी बाद पता चला कि डेंग्यू का व्हाइरस भी शरीर में आ चुका था । इन सभी प्रारब्धों से, उनके भोग से बापू ने मेरे पति को बचाया और आज भी संरक्षण कर रहे हैं ।
त्व नो माता त्व पिताप्तोधिपस्त्वम्।
त्राता योगक्षेम कृत्सद्गुरुस्त्वम्।
त्व सर्वस्वं नो प्रभो विश्वमूर्ते
घोरात्काष्टादुध्दरास्मानमस्ते॥
इस घटना /अनुभव में मैंने घोरकष्टोधरण स्तोत्र का पूर्ण रुप से अनुभव किया कि भक्तों के संकटों की अपेक्षा उनके सद्गुरु बहुत बहुत बडे होते हैं और उनके दिये हुए वचन क, ‘‘मैं तुम्हें कभी भी त्यागूँगा नहीं’ को हमेशा निभाते हैं ।
सच है बापूराया ! आपने हमारे लिये क्या किया है यह आपही को पता है । मेरी पात्रता न होते हुए भी आपने मेरे प्रारब्ध को बदल दिया । यह कर्ज कभी भी न चुकता होनेवाला है । फिर भी आपके चरणों में एक ही प्रार्थना है सभी को आपकी भक्ति सेवा करने का अवसर प्राप्त हो और यह देह, आपही की भक्ति सेवा में अखंड रुप से कार्यरत रहें ।
किती आधिव्याधी तू केल्यास शांत
रक्षिलेस मजला घोर संकटात
विसरलास ना मला तू अहोरात
स्मर्तृगामी बापू, दत्तगुरु ओळखलो
अनिरुद्धा तुझा मी किती ऋणी झालो।
मैंने स्वामी, साईराम नहीं देखें, राम-कृष्ण की केवल कहानियाँ सुनी, परंतु बापू को मैंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभव भी किया । सच ! बापू ही मेरा स्वामी, साई, रामकृष्ण हरि ! बापू त्रिपुरारी !
परंतु जो मैं अनुभव कर रही थी, वह मैं किसी को बता नहीं सकती कि इतने बडे संकट से केवल मेरे बापूकृपा से इन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई । कुछ महीनों पश्चात वे (पति) स्वंय ही गुरुक्षे्त्रम् भी आये ।
उचित समय आने पर उन्हें बापू के दर्शन भी होंगे ही । सच जो जीव मेरे बापू के चरणों में शरणागत है, उस प्रत्येक की बापू को चिंता है । जो उन्हें मानते हैं, केवल उन्हीं के लिये नहीं बल्कि जो उन्हें नहीं मानते, उनके लिये भी यह माऊली दौड़ कर चली आती है ।
॥ हरि ॐ ॥