॥ हरि ॐ ॥
दि.21 नवम्बर 2010 श्रीअनिरुद्ध पौर्णिमा के दिन की बात है । मैंने 151 रामनाम बही लिखकर पूर्ण की थी । 142 बहियाँ पहले ही जमा कर दी थी । बाकी 9 अनिरुद्धपौर्णिमा के दिन सुबह 11 बजे मैं उत्सवस्थल अर्थात मुलुंड जाने के लिये निकला । रामनाम बैंक की पासबुक मैंने एक बही में रखी थी ।
मेरे निकलने के कुछ देर पहले ही मेरी बहन घर से निकली थी । उसे मुझसे पहले ही लोकर ट्रेन मिली और वह दादर पहुँची । वहाँ से उसने सेन्ट्रल लाईन से ठाणे गाडी पकड़ी । परंतु कुछ देर बाद ही विक्रोली स्टेशन पर कोई दुर्घटना हुई और रेल्वे व्यवस्था डेढ़ घंटे के लिये स्थगित हो गई । उलटी सीधी खबरें आ रही थी । ठीक से कुछ भी पता न चल रहा था । हमारी गाड़ी भी कुर्ला स्टेशन के पास आकर रुकी थी । तभी बहन ने फोन किया और कहा कि और समय न गंवाते हुए रिक्षा से मुलुंड जाना चाहिये ।
मैं कुर्ला उतरकर हायवे पर आया और बस की राह देखने लगा । बसें भी भर-भर के आ रही थी । तभी पता चला कि ट्रेनें शुरु हो गई हैं । मैं वापस कुर्ला स्टेशन आया । डोंबिवली गाडी पकडकर जब मुलुंड उतरा तो शाम के 7 बजे थे ।
मैं भक्तिगंगा में खड़ा हो गया । आज रामनाम बहियाँ जमा होंगी इस बात का आनंद भी था । समय पर होंगी या नहीं इसकी थोडी शंका भी थी । आखिर मेरा नंबर आ ही गया । कॉपियां काऊंटर पर देकर एन्ट्री करने हेतु पास बुक देखा तो गायब ! ठीक से देखा तो पता लगा कि मेरी थैली फटी थी, यानी पासबुक गाडी में गिर गया होगा । गाडी में या और कहीं ? कहाँ ढूंढु? कुछ सूझ नहीं रहा था ।
परंतु जब सभी मानवी उपाय थक जाते हैं, तब वे सद्गुरुतत्त्व श्रद्धावान की मदद करने के लिये दौडकर आते हैं । क्योंकि बाद में ऐसी कुछ घटनाएं घटी जो मेरे सद्गुरु माऊली के सिवा और कौन कर सकता है ?
मेरी रामनाम बही की पास बुक गाडी में जिसे मिली उसने डोंबिवली स्टेशन पर एक बेंच पर रख दी जो बेंच पर बैठी एक महिला को मिली। उस पर मेरा, घरका फोन नंबर था । उस महिला ने फोन कर /संपर्क कर हमें कहा कि दस मिनिट में डोंबिवली स्टेशन आ कर ले जाईये । अब मुलुंड से डोंबिवली पहुँचना, वह भी 10 मिनट में ? कैसे संभव था ?
तभी मुझे विचार आया कि मेरी एक मौसी डोंबिवली में रहती हैं, उसे फोन करुँ । सच देखा जाए तो उसे फोन कर सब ठीक होने की संभावना बहुत कम थी । घर पर यदि वह हो तो भी तैयार होकर 10 मिनट में स्टेशन पहुँचना असंभव था और यदि बाहर दूर हो तो स्टेशन जाने का सवाल ही नहीं था । बापू को याद करते करते मैंने मौसी को फोन लगाया और आप विश्वास नहीं करेंगे...मौसी उस समय डोंबिवली स्टेशन पर ही थी ।
बापू की मेरे लिये चलाई इस लीला को देखकर अब मुझे रोना आ रहा था । लीला ही थी !! जिस महिला को पास बुक मिली थी वह जा रही थी कल्यान परंतु एक छोटा काम याद आने पर वह डोंबिवली उतर गई थी और उसी बेंच पर बैठी थी जहाँ पास बुक पडी थी।
बापरे ! बापूराया !! कितना हमारे लिये भागता फिरता है ? इतना दौड़कर क्या तुम थक नहीं जाते ? हम-तुम्हारे बालक ! ऐसी बेफिक्री करें, और तुम बाद में उसे ठीक करों ! छी ! मुझे अपनेआप पर शर्म आती है ।
मैंने मौसी को फोन पर संक्षिप्त में सारी जानकारी दी और वह महिला कहाँ खडी है यह बताया । फिर मौसी ने जाकर उनसे पासबुक प्राप्त की ।
पास बुक मिलने तक, मुझे पता चलने तक मेरी जान में जान नहीं थी । तब तक उत्सव स्थल स्थित रामनाम बैंक के काउंटर पर बैठे कार्यकर्ताओं ने भी मुझे ढाँढस बंधाया, ‘‘पास बुक मिल जायेगा, आप चिंता न करें ।’’ वे बार बार यहीं कह रहे थे ।
आखिर मेरी कापियां जमा हो गई और उसमें 151 संख्या की एन्ट्री भी हो गई !!
ऐसा है हमारा बाप्पा ! कछुआ कैसे नदी किनारे से दूसरे किनारे स्थित अपने बच्चों को पोसती है, वैसे ही हमारा बाप्पा ! बापू !! चाहे उसके बालक दुनिया के किसी भी कोने में हों, ‘उनका’ ध्यान रहता ही है ।
कासवीचे दृष्टी पोसे गुरु भक्ता।
येई नाम घेता हा अनुभव।
॥ हरि ॐ ॥