॥ हरि ॐ ॥
इन्सान विज्ञान में कितनी भी प्रगति क्यों न कर ले, मगर जब प्रकृति अपना रुद्ररूप दिखाती है, तब इन्सान की सारी कोशिशें, सारी होशियारी धरी की धरी रह जाती है और उसे अपनी विवशता का अहसास होता है, साथ ही साथ उसे अहसास होता है कि सद्गुरु के आधार के बिना हम कुछ भी नहीं हैं। सद्गुरु के चरणों में विश्वास रखनेवाले श्रद्धावानों को ऐसी विपदाएं ‘उस’ के कवच की रसीद ही होती हैं - सद्गुरु का उस व्यक्ति के जीवन में अस्तित्व की - क्योंकि वह श्रद्धावान
विश्व के किसी भी कोने में, कहीं भी रहे उसे विपदा से बच निकलने का मौका अवश्य मिलता है। यह अनुभव इसी बात की पुष्टि करता है।
सन 2011 के मई के महीने में हमारा पूरा परिवार छुट्टियां मनाने कश्मीर जाने की सोच रहा था। मगर उस भाग में अभी भी आतंकवादी गतिविधियां चल रही हैं इसलिए मन में थोडा डर भी था। इसलिए वहां जाने की अनुमति लेने हेतु हम फरवरी में परमपूज्य डॉ. सुचितदादा के पास गए। मेरी मां प्रतीक्षावीरा शाह ने दादा से कश्मीर जाने की अनुमति मांगी।
हमेशा अपने हसमुख चेहरे से हमारी चिंताएं दूर करनेवाले सुचितदादा ने पलभर में कहा, ‘‘बिन्धास्त जाओ’ और मजाक में बोले ‘आप जाओगे तो एक्स्ट्रिमिस्ट्स भी भाग जाएंगे’। सभी दादा के मजाकिया स्वभाव से परिचित हैं, इसलिए हम ने भी उसे मजाक ही समझा। उस समय हम उनकी बातों में छुपा अर्थ समझ नहीं पाए थे और उनका आशिर्वाद लेकर हम वहां से निकल आए।
हम चारों अर्थात मेरे माता, पिता, पत्नी और मैं 24 मई 2011 को श्रीनगर पहुंचे। चूंकी हम पैकेज टूर के जरिए गए थे इसलिए सारे ग्रूप्स की खानपान की व्यवस्था एकसाथ एक ही जगह पर की गई थी। इस लिए हमें एक शिकारे से कश्मीर के सुप्रसिद्ध दाल लेक में हमारे लिए आरक्षित हाऊसबोट पर ले जाया गया, और वहां से हमें खानपान के स्थान पर जाना था। फिर से 15 मिनटों की शिकारे की सैर कर के हम खानपान के स्थान पर पहुंचे। मैंने वह टीशर्ट पहनी हुई थी जिस पर मैंने मेरे प्यारे बापू का एक पसंदीदा फोटो छपवाया हुआ था। शिकारा से उतरकर जब हम गंतव्यस्थान पर जा रहे थे तब मेरे सामने से जल्दबाजी में आनेवाले एक व्यक्ति ने मुझे ‘हरि ॐ’ कहा, और मैंने भी उसे ‘हरि ॐ’ कहकर उत्तर दिया। इतनी अनजान जगह पर ‘हरि ॐ’ के वे जानेपहचाने शब्द कहने वाले सज्जन का मिलना मानो बापूजी की साक्ष थी कि, ‘यहां पर भी मैं तेरे साथ हू’। मगर वे सज्जन दोबारा वहां पर दिखाई नहीं दिए।
दूसरे दिन हमें सोनमार्ग साईटसीइंग के लिए जाना था। ग्रूप के सभी सदस्य एक बस से जानेवाले थे, मगर हम ने दूसरे वाहन से जाना चाहा। वाहन से सोनमार्ग घूमकर हम अन्य लोगों से पहले लौट आए और हम ने जो कुछ देखा उस पर हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था। सुबह को जब हम निकले थे तब तेज धूप की वजह से गरमी महसूस हो रही थी और अब....? केवल दो घंटे पहले ही वहां पर जोरदार तूफान ने अपना खेल दिखाया था। वहां के निवासियों का कहना था कि मई के महीने उन्होंने कभी भी ऐसा तूफान नहीं देखा था।
हम ने वाहन में ही बैठे बैठे तकरीबन पौना घंटा इन्तजार किया। हमें अपने हाऊसबोट तक पहुंचना था और हम बापूजी की प्रार्थना कर रहे थे। लंबी यात्रा (तकरीबन 200 कि.मी.) करके हम बहुत थक चुके थे और जल्द से जल्द हाऊसबोट में जाकर आराम करना चाहते थे। तू्फान थम चुका था मगर जोरदार हवाएं अब भी चल रही थीं इसलिए शिकारे बंद करके उनकी छतें भी निकाली गई थीं ताकि हवा के झोंकों से वे उलट न जाएं। कुदरति विपदाओं के समक्ष इन्सान बौना होता है। हम केवल परिस्थिति सुधरने की राह देखते रहे।
हम बापूजी को पुकार ही रहे थे कि उन्होंने ही चक्र घुमाए। मेरे पिताजी, भरतसिंह शाह ने एक शिकारेवाले को हाऊसबोट तक ले जाने के लिए मना लिया। अब बहुत ठंड लगने लगी थी। सुबह को गरमी के कारण हम ने जैकेट, गरम कपडे अपने साथ नहीं लिए थे। उस पर शिकारे की छत निकाली हुई थी इसलिए ज्यादा ठंड महसूस होनी थी।
इतने में हमें संदेश मिला कि हम सबको खाना खाने बाद ही हाऊसबोट में जाना है। तू्फान की वजह से कई जगहों पर बत्तियां नहीं थीं। जनरेटर की बदौलत बहुत ही कम बत्तियां जल रही थीं। बापूजी का नाम लेकर हम चारों शिकारे में बैठ गए। वैसे तो अकेला इन्सान शिकारा चला सकता है, मगर खराब मौसम की वजह से दो जने शिकारा चला रहे थे ताकि कोई जोखिम न उठाना पडे।
शिकारा चल पडा। कल शिकारे से हाऊसबोट तक जाने में कितना मजा आ रहा था। हम ने तो दो घंटों की शिकारे की सैर भी बडे मजे से की थी, मगर अब....? अब खाने के लिए जाने हेतु पंद्रह मिनटों की यात्रा भी भयकारी प्रतीत हो रही थी।
उस पर शिकारेवाले ने यह खबर सुनाई कि दोपहर को अचानक आए हुए तू्फान की वजह से 4-5 शिकारे उलट गए थे। यह सुनकर हमारा टेन्शन और भी बढ गया। हालांकि उस दुर्घटना में कोई भी मरा नहीं था, सब को बचा लिया गया था फिर भी उनकी कुछ चीजें जैसे पर्सेस, मोबाईल्स आदि खो गए। हम निरंतर बापू को पुकार रहे थे। मैंने मोबाईल पर निरंतर ‘गुरुक्षेत्रम मंत्र’ चला रखा था। प्रकृति के उस रुद्ररूप से बचानेवाले केवल बापू ही तो थे।
अखिरकार हम भोजन के स्थान पर पहुंचे और भोजन करके हाऊसबोट की ओर वापसी की यात्रा करने लगे। वापसी में भी बापूजी का नामस्मरण कर ही रहे थे। बीच में कहीं हवा के बडे झटके से शिकारा डोल जाता था तो हमारी घिग्घी बंध जाती थी और फिर हम बापूजी का नामस्मरण अधिक जोरों से करने लगते थे। मगर दो-तीन बार ऐसा होने के बाद पता चला कि ऐसे झटकों के बाद शिकारा अपनेआप सम्भल जाता है।
जब हम हाऊसबोट में पहुंचे तब जान में जान आई। केवल ‘एकमात्र इस’ बापूजी की कृपा से ही हम यहां तक सहीसलामत पहुंचे थे, वरना कुछ भी हो सकता था।
हाऊसबोट पर पहुंचने के बाद फ्रेश होकर हम चारों गपशप करने लगे। विषय निश्चित ही ‘तू्फानी घटना’ था। अचानक मुझे परमपूज्य सुचितदादा के शब्द याद आए - ‘आप जाएंगे तो एक्स्ट्रिमिस्ट्स भी भाग जायेंगे’, और धीरे धीरे इसका मतलब समझ में आने लगा। ‘एक्स्ट्रीम’ शब्द का शब्दोकोश में अर्थ पढा तो ‘सर्वसामान्य नहीं, बहुत ही अशांत और बलवान’ दिया गया है। अर्थात हम जिन परिस्थितियों में फंसे थे, यानी तूफान और जोरदार हवाओं की, वह उस मौसम में आमतौर पर नहीं होतीं।
तब हमने समझा कि एक सरल मजेदार प्रतीत होनेवाले वाक्य के द्वारा परमपूज्य दादा ने मानो हमें आगामी घटनाओं का संकेत दिया था। इतना ही नहीं, तो इस सारी विपदा के दौरान हमें सुरक्षित रखा था। (हम दाल लेक से सोनमार्ग घूमने गए थे उसी समय दाल लेक के इलाके में तू्फान आया था)
ऐसे हैं यह तीनों - परमपूज्य बापू-नंदाई-दादा! तीनों भिन्न दिखाई देते हैं फिर भी वास्तव में वे तीनों एक ही तत्व है। हम विश्व के किसी भी कोने में रहें, वे हर पल हमारे साथ ही होते हैं, हमारा खयाल रखते हैं, हम से बहुत प्रेम करते हैं। उस प्रेम को हमारा निरपेक्ष प्रेम उनके चरणों में अर्पण करने की कोशिश करने से ही हमारा जीवन सुन्दर बनेगा, अनिरुद्ध बनेगा।
॥ हरि ॐ ॥